जन्म से ही कुछ सवाल बंध गए थे मुझसे
क्यों माँ के सिवा कोई खुश नही हुआ
क्यों बापू ने कभी गोद में नहीं उठाया
क्यों दादी ने ना की एक प्यार की बात मुझसे...
क्यों मेरी हर ज़रूरत पर पैसा कम पड़ जाता
क्यों मेरी पढाई बापू पर बोझा बन जाती
क्यों मेरे सपनो को छीना जाता मुझसे....
क्यों घर की इज्जत को मेरे कन्धों पर रख के ही तौला जाता
क्यों मुझे दबी आवाज़ में ही बोलना सिखाया जाता
क्यों शाम में जल्दी घर लौटने की बंदिश थी मुझपे....
क्यों माँ केवल चोरी छिपे ही लाड-प्यार किया करती
क्यों माँ को भी थे बीसियों
ताने सुनने पड़ते
ऐसे हजारों सवाल किया करती मैं खुद से....
कुछ सोच पाती, कुछ समझ पाती, उससे पहले ही –
‘अमानत’ दूसरे की लौटाने की बातें होने लगी थी
नया घर, नए लोग , नयी बातें और नए सपने....
अनसुलझे सवालों तले दबी - मैंने एक ‘सवाल’ को जन्म दिया
क्यों इस बार भी खुश होने वाली एक मैं ही थी ??
उन सवालों के सिवा कुछ न दे पाई अपनी बेटी को
अब तो सवाल करने की आज़ादी भी छिन सी गयी है मुझसे !!
( मेरे मित्रों - राहुल, प्रतीक, अनिमेश के सुझावों का इस कविता को इस रूप में लाने में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान रहा है)