Tuesday, April 24, 2012

सवाल


जन्म  से  ही  कुछ  सवाल  बंध  गए  थे  मुझसे
क्यों माँ  के  सिवा  कोई  खुश  नही  हुआ 
क्यों  बापू  ने  कभी  गोद  में  नहीं  उठाया
क्यों  दादी  ने  ना  की  एक  प्यार  की  बात  मुझसे...

क्यों  मेरी  हर  ज़रूरत  पर  पैसा  कम  पड़  जाता
क्यों  मेरी  पढाई  बापू  पर  बोझा  बन  जाती 
क्यों  मेरे  सपनो  को  छीना  जाता  मुझसे....

क्यों  घर  की  इज्जत  को  मेरे  कन्धों  पर रख  के  ही  तौला  जाता 
क्यों  मुझे  दबी  आवाज़  में  ही  बोलना  सिखाया  जाता 
क्यों  शाम  में  जल्दी  घर  लौटने  की  बंदिश  थी  मुझपे....

क्यों  माँ  केवल  चोरी  छिपे  ही  लाड-प्यार  किया  करती 
क्यों  माँ  को  भी  थे  बीसियों  ताने  सुनने  पड़ते 
ऐसे  हजारों  सवाल  किया  करती  मैं  खुद  से....

कुछ  सोच  पाती, कुछ  समझ  पाती, उससे  पहले  ही  –
‘अमानत’  दूसरे  की  लौटाने  की  बातें  होने  लगी  थी
नया  घर, नए  लोग , नयी  बातें  और  नए  सपने....

अनसुलझे  सवालों  तले  दबी  - मैंने  एक  ‘सवाल’ को  जन्म  दिया
क्यों  इस  बार  भी  खुश  होने  वाली  एक  मैं  ही  थी ??
उन  सवालों  के  सिवा  कुछ  न  दे  पाई  अपनी  बेटी  को
अब  तो  सवाल  करने  की  आज़ादी  भी  छिन सी  गयी  है  मुझसे !!


( मेरे मित्रों - राहुल, प्रतीक, अनिमेश के सुझावों का  इस कविता को इस रूप में लाने में बड़ा  महत्वपूर्ण योगदान रहा है)
 

Wednesday, January 25, 2012

सफ़र

इत्तेफाक से शुरू हुआ एक सफ़र,
अजनबी जिसमें सब हमसफ़र..
आँखों में सबकी एक ही सपना,
फले फूले देश ये अपना..

पटरियों पर दौड़ती ज़िन्दगी,
हर दिन बढती जाती बंदगी..
रोज़ मिलते जोशीले नए चेहरे,
हर ओर गूंजते थे कहकहे ..

हर दिन की एक नयी कहानी,
जीना सिखाती हर एक जिंदगानी..
अचरज होता हर एक को सुनकर,
खुश देखा लोगो को सपने बुनकर..

बोलने से ज्यादा सुनना सीखा,
देश को कुछ करीब से देखा..
कुछ समस्याओं का 'निदान' भी सोचा,
अंतर्मन की 'गूँज' को भी खोजा..

साबरमती की शांति में खोये,
बिछुड़ते वक़्त मन ही मन रोये..
जाने क्या पाया उन चंद दिनों में,
एक नयी सी दिशा मिली जीवन में !!

- -सभी यात्रियों को समर्पित जिनके साथ मैंने 'जागृति यात्रा' का अद्भुत अनुभव लिया

Tuesday, May 17, 2011

बारिश की पहली बूँदें

वो बारिश की पहली बूँदें , गिरी जब मेरे गालों पर |
नाच उठा मन - मयूर , बादलों के गर्जन पर |
ग्रीष्म के थपेड़ों से ग्रस्त , प्यासा था हरेक मन |
बारिश की 'मीठी' बूंदों से हर्षाया तन मन ||

टप टप गिरती बूंदों से बढ़ता जाता मेरा उल्लास |
पावस की पहली छुअन का , पुलकन भरा अहसास |
यादें हुई ताज़ा पानी से लबालब घर के चौक की |
तरंग दौड़ गयी कागज़ की नाव तैराने के शौक की ||

कमीज़ खोलकर बारिश में सरपट दौड़ जाने की चाह |
नंगे बदन पर गिरती ठंडी बूंदों की चुभन की आह |
पाकर ठंडक हुआ मुदित उल्लसित अंतर्मन |
वो बारिश की पहली बूँदें , भीगा गयी मेरा तन मन ||

Thursday, February 10, 2011

राही

राही चलता चल, राह बहुत लम्बी तेरी !
सुख -दुःख हँसना-रोना तो चलता रहता है,
ना हो इनसे मंद गति तेरी !!

पथ से भटकाने वाले तो बहुत हैं, गिने चुने ही सही राह दिखाते !
सही और गलत को पहचाने यदि तू , कट जाएगा मग हंसते हंसते !
मार्ग की बाधाएं कदम डिगायेंगी, वीर वही जो अडिग चलते जाते !
मजबूत इरादे, उच्च मनोबल और श्रम ही नौका पार लगाते !!
राही चलता चल...

हो सकता है पास दिखे लक्ष्य तुझे, लेकिन तुझे नहीं सुस्ताना है !
खरगोश चाहे बन किन्तु उसकी गलती को नहीं दोहराना है !
एकाग्र और अटल यदि लक्ष्य है तेरा, तुझको क्यों घबराना है !
एक बार वरण करो विजयश्री, फिर जीवन तो उत्सव का बहाना है !!
राही चलता चल...

बारिश

थोड़ी सी बारिश क्या हुई, इंसान कहता है कीचड हो गया हर जगह !
अरे क्या तू बाहर देखे, तू झाँक तो मन के भीतर भी
भरा कीचड कितना अन्दर भी..
जान ले तू अपने भीतर के कल्मष की वजह!!

रहा नहीं प्रेम और रिश्तों का कोई मूल्य, भाई ही करे भाई से द्वेष ;
स्वार्थ में हो उन्मत्त मूढ़ मनुज भूल गया सब नाते विशेष |
सोचें कैसे हो दूर मन की यह मलिनता, कैसे हों दूर आपसी क्लेश ;
सोचें समझें और विचारें, कैसे हो नियंत्रित ये भावावेश ||

बाहर का कीचड तो धुल जायेगा, एक अच्छी 'बारिश' की देर है ;
कभी धुले मन का भी मैल, ऐसी भी क्या कोई 'बारिश' है?
प्रेमसुधा कभी तो बरसे,
कभी तो निज के अतिरिक्त किसी हेतु हूक उठे मन में
ऐसे किसी दिन के इंतज़ार में मानवता आज है
बाहर से ज्यादा भीतर का मैल मिटाना ज़रूरी आज है....